कबीर की काव्य भाषा पर प्रकाश डालिए,कबीर की काव्य भाषा की विशेषता (kabir ki bhasha, kabir das ki bhasha shaili):-
कबीर की भाषा क्या है kabir ki bhasha
कबीर भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, परंतु पर्यटनशील होने के कारण उनकी भाषा में ब्रज, अवधी, राजस्थानी, पूर्वी हिंदी, पंजाबी आदि का सम्मिश्रण मिलता है, जिससे उसे पंचमेल खिचड़ी या साधुक्कड़ी कहा जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है। डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के मतानुसार ''कबीर निस्संदेह एक प्रतिभा संपन्न महाकवि थे, वे काव्य रूढ़ियों के जानकार न होकर भी अनुभवी शब्द चितेरे थे, काव्य कला के मर्मज्ञ न होकर भी शब्द शिल्पी थे और संगीत के पंडित ना होकर भी हिंदी की दिव्य एवं अलौकिक कविता के गायक थे।''
कबीर ने यद्यपि अपने काव्य विधान में किसी प्रकार की प्रयत्नपूर्वक योजना नहीं की फिर भी प्रतीकात्मकता, अलंकारिकता और राजस्थान में बहुत ही सहज रूप में ही उसमें आ गई है। अन्योक्ति और रूपक अलंकार के प्रयोग में वे सिद्धहस्त हैं।
कबीर की भाषा की विशेषता लिखिए kabir ki bhasha
कबीर की भाषा में सामान्य तौर पर निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती है१. कबीर की भाषा में ब्रजभाषा अवधी खड़ी बोली राजस्थानी पंजाबी तथा अरबी फारसी भाषाओं का मिश्रण है। ऐसी भाषा साधुओं के बीच प्रचलित थी जिससे इसे साधुक्कड़ी भाषा कहा गया है
२. कबीर द्वारा प्रयुक्त भाषा अनगढ़, अपरिमार्जित और अपरिष्कृत है, फिर भी वह अत्यंत प्रभावशाली है। कबीर की उक्ति यों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है।
३. कबीर की भाषा में व्याकरण के नियमों नगरों में प्रयोग की जाने वाली नियमों से अलग है।
४. कबीर की भाषा संगीतात्मक है जिसमें अभिव्यंजना की समस्त पद्धतियां पायी जाती है।
५. कबीर की भाषा में कबीर के भावनाओं को व्यक्त करने में पूर्ण रूप से सक्षम और समर्थ है। कबीर शब्दों को मूर्त रूप देने में माहिर है।
६. कबीर की भाषा में व्यंजना शक्ति का पूर्ण प्रस्फुटन दिखाई देता है। उनकी साखियों में बिम्बों का निर्माण करने वाले अलंकारों का आकर्षक प्रयोग उपलब्ध होता है।
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