कलकत्ता कविता का सारांश kolkata kavita ka saransh class 9

आप सभी का इस आर्टिकल में स्वागत है आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से कलकत्ता कविता का सारांश (kolkata kavita ka saransh class 9) को पढ़ने जा रहे हैं। जो पश्चिम बंगाल के सरकारी विद्यालय के कक्षा 9 के पाठ 5 कलकत्ता (कविता) से लिया गया है। तो चलिए कलकत्ता कविता का सारांश (kolkata kavita ka saransh class 9) को पढ़ते हैं-

कलकत्ता कविता का सारांश kolkata kavita ka saransh class 9

 

कलकत्ता कविता का सारांश kolkata kavita ka saransh class 9

कलकत्ता कविता अरुण कमल द्वारा लिखित एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें वह कोलकाता जाने की अभिलाषा को इस कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया है साथी ही कोलकाता के मनोरम को इस कविता के माध्यम से दर्शाया है कवि कोलकाता से बहुत ही अविभूत है कवि के अंदर कोलकाता की रमणियता इतना भर गया है कि वे बार-बार उन्हें कोलकाता भ्रमण करने के लिए प्रेरित करता है। कवि पटना शहर में रहता है और बार-बार कोलकाता घूमने के लिए लालायित रहता है कोलकाता की सुंदरता कवि की जेहन में घर कर गया है। इसी वजह से कवि अरुण कमाल एक बार नहीं बल्कि सौ बार कोलकाता जाने के लिए लालायित है।

कवि बार-बार कोलकाता जाना चाहता है वह एक बार नहीं बल्कि सौ बार जाना चाहता है। वह तब से कोलकाता जा रहा है जब वह कोलकता नहीं कलकत्ता के नाम से जाना जाता था और इसे लोग बाइस्कोप में ही देख पाते थे। कवि अपने बचपन काल में अपने बाबा के कंधे पर बैठ कर कलकत्ता जाया करता था। उसे बाबा का कंधा ग़ालिब की शायरी में आए पालकी का एहसास दिलाता था। जब थोड़ा बड़ा हो गया तो कवि अपने गांव के उन लोगों के साथ कलकत्ता जाने लगा जो कलकत्ता के चटकल में काम किया करते थे। वे मजदूर अपने पेट पर सत्तू के गठरी लेकर जाया करते थे और कवि भी उनके साथ सत्तू का लुत्फ उठाते थे। कभी उन लोगों के साथ पश्चिम बंगाल के महिषादल नामक स्थान तक जाते थे। जब वह कोलकाता जाता था तब सबसे पहले वह हावड़ा पहुंचता था और हावड़ा पुल का सबसे ऊपरी हिस्सा मस्तूल उसे चमकता हुआ नजर आता था।

कोलकाता पास में ही है वह सागर के द्वारा निक्षेपित अवसरों के ऊपर कंदमूल की तरह गंगा के किनारे बसा हुआ है। कोलकाता रात में झिलमिलाते तारे और उड़हुल के फूल जैसी सुंदर दिखाई देता है।

कोलकाता इतना सुंदर और प्यारा है कि कवि को कोलकाता मदमस्त हाथी जो कि गन्ना चूसते हुए या यहां का कोलाहल घंटी बजाते दमकल जैसा लगता है। कवि को वह दिन आज भी याद है जब वह कोलकाता की सड़क में अपने लिए जगह छेका करता था। अब वह फिर एक बार कोलकाता में अपने चाल और गति को ढूंढता है। कवि परेशान हैं एक राहगीर है इस व्यस्त शहर में सड़क पार करने के लिए उचित स्थान ढूंढ रहा है। यह राहगीर मानव है जो व्यस्त जीवन को सुख पूर्वक बिताने के लिए उचित आयम ढूंढ रहा है। वहां पर लाल हरी पीली बत्ती लगी हुई है। सड़क पर गति और वेग बहुत तेज है। कवि उसी ट्रैफिक के बीच फंसा हुआ है। वह नृपेन चक्रवर्ती की कविता में व्यक्त नंग धड़ंग आदिवासी के बच्चे की तरह चौरंगी में सड़क पर दौड़ा करता था। वह सब उसे याद आ रहा है। अब बस अब नहीं रह गया है। अब तो बस यह घूमती हुई पृथ्वी है और उसी तरह से झूलते चूल वाले, शरीर से पसीना टपकते हुए नंगे आदिवासी और उनके बच्चे की याद आ रहे हैं क्योंकि जो गति उनकी है वही गति कवि के जीवन की भी गति है। क्योंकि जब भी वह आराम सुख का उपभोग करना चाहता है तब व्यस्तता की भेरी बस जाती है और वहां पर अपने व्यस्ततम् जीवन को लेकर अग्रसित हो उठता है और कोई कोलकाता जाने की चाह बन उठती है। वह लंदन, पेंइचिंग, और न्यूयार्क एक बार ही जाना चाहेगा पर कोलकाता बार-बार जाना चाहता है। उसे कोलकाता से बहुत लगाव है क्योंकि कोलकाता अति प्रिय शहर है। यह अपने आप में एक दुनिया है और सब कुछ उसमें समाहित हैं।

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